Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति ६) २९

३. ।सैदे खां दरशन करके फकीर हो गिआ॥
२ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति ६ अगला अंसू>>४
दोहरा: इस प्रकार रण मच रहो
मेमूखान पठान।
करति शीघ्रता फिरति है
तानहि बान कमान ॥१॥
चौपई: हय कुदाइ चपलाइ प्रहारहि।
इत अुति बिचरति शज़त्र संघारहि।
करि बहादरी गुर दिखरावहि।
रिपु को खापति आप बचावहि ॥२॥
सैदखान जिस ढिग सरदारी।
जिस के सकल सैन अनुसारी।
तिस के जागे भाग बिसाला।
अुपजो प्रेम आनि तिस काला ॥३॥
सुजसु गुरू को सुनतो रहो।
नहीण बिलोचन ते कबि लहो।
गुनी, अुदार, चतुर, तन रूरे१।
इज़तादिक गुन गन करि पूरे२ ॥४॥
जनु जग की सुंदरता जोरी३।
बिबिधि बिधिनि की बिधहि बटोरी४।
सुमति बिचारचार चतुराई।
मूरति गुर की एक बनाई ॥५॥
मनहु दिखावन निज निपुनाई५।
गुर तन रचि तिस कीरति पाई।
पदम पज़त्र आक्रित विच डोरे६।
७खंजन मन रंजन चित चोरे ॥६॥


१भाव (अंदरोण) गुणी, (सुभाव तोण) अुदार, (बाणी तोण) चतुर ते सरीरोण सुंदर।
२पूरे (हन गुरू जी)।
३कज़ठी कीती है।
४मानो नाना तर्हां दी (जगत दी सुंदरता) ब्रहमा ने बटोर बटोर के कज़ठी कीती है।
५प्रबीनता।
६कवल दे पज़त्र दी शोभा (वाले नेत्राण) विच डोरे।
७ममोले वरगे ते मन ळ प्रसंन करन वाले चित चुराअुण वाले सुहणे नैं....।

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