Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति ६) २६३
३४. ।चमकौर गड़्ही विच जुज़ध॥
३३ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति ६ अगला अंसू>>३५
दोहरा: आप आप को हुइ गयो, जो बहीर गुर केर१।
को लूटो को बच रहो, को लरि म्रितु तिस बेर ॥१॥
भुजंग छंद: चले आप नाथं दिशा दज़छनी को।
हुतो माजरा बूर२ नामं जिसी को।
तिसी ग्राम आए थिरे थोर काला।
कहो दास को नीर आनो अुताला ॥२॥
सुने सिंघ ने डोर लोटा सभारा।
तहां कूप ते नीर नीको निकारा।
गुरू को दियो आनि लीनो तदाई।
चुले कीन नेत्रं पखारे बनाई ॥३॥
कछू पान कीन मल हीन पानी३।
हुते सिंघ संगी जिने चाह ठानी४।
मुखं धोइ लीनां चहो पन कीना।
चले फेर आगे जहां पंथ चीना ॥४॥
ललितपद छंद: दिज़ली ते इक मानव आयो
जाति तुरक केडेरे।
श्री गुर संग मिलो करि बंदन
बूझो सिंघन हेरे ॥५॥
कितते आयो जाइ कहां को?
अुतलावति चलि राहू?
सुनि कै सभि तिन सकल बताई
जाअुण तुरक दल मांहू ॥६॥
खुआज मरद ने चमूं हकारी
गुर गहिबे के हेतू।
सो दस लाख आइ असवारहि
आनि मिलहि, दिअुण भेतू५ ॥७॥
१भाव जिज़धर किसे ळ राह मिलिआ ओधर ही चला गिआ।
२बूर माजरा पिंड दा नाम है इस तोण चमकौर सज़त कु मील है, गुरदारा है।
३निरमल जल।
४जिन्हां इज़छा कीती।
५भाव इह भेत देण आइआ हां।