Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १२) ४०९५५. ।बाकी कुझ सिखां ळ गुरू जी ने रिहाई दिज़ती॥
५४ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि १२ अगला अंसू>>५६
दोहरा: मतीदास प्रभु पुरि गयो, कंप अुठे सिख और।
धरि करि त्रास बिसाल को, पिखि काराग्रिह ठौर ॥१॥
चौपई: निसा परी बड भयो अंधेरा।
हाथ जोरि बोले तिस बेरा।
सुनहु गुरू जी! हते कुथांइ।
तुरकेशुर हठ अधिक बधाइ ॥२॥
अबहि न छोरहि हम को जीवति।
दिन प्रति कशट देनि पर थीवति१।
बंधन पाइन महि परवाए।
पहिरू करि सुचेत ठहिराए ॥३॥
निस दिन महिद होहि तकराई।
नहि कैसे अब निकसन पाई।
सुनि गुर कहो चहहु जे जाना।
तौ अब निस महि करहु पयाना ॥४॥
कैद तुरक की तजि निकसीजै।
चले जाहु निज घर सुख लीजै।
सुनि सिज़खन जिन मन* डर हौले।
बोले तब शरधा ते डोले ॥५॥
बंधन परे अंग महि भारे।
पहिरू खरे शसत्र कर धारे।
अहैण असंजति पौर किवारे।
डारि श्रिंखला तारो मारे ॥६॥किम अब निकसनि बनहि हमारो।
मरबो हुइ है रिदे बिचारो।
सुनि श्री तेग बहादर भाखा।
कहहु जथा पुरीअहि अभिलाखा२ ॥७॥
बंधन पाइन ते छुट जै हैण।
१(तुलिआ) होइआ है।
*पा:-सुनि सिख निज निज मन।
२पूरन करदे हां इज़छा।