Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १२) ४८४
६६. ।सचखंड प्रवेश॥
६५ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि १२ अगला अंसू>>६७
दोहरा: ब्रहमादिक मघवा अमर,
आइ गगन महि छाइ।
हेरहि अचरज को धरैण,
मिलति भए समुदाइ ॥१॥
चौपई: -सिर दे हिंदुनि धरम अुबारहि१।
तुरक राज की जरा अुखारहि-।
बड अुतसाहु करति सभि आए।जै गुरु जै गुरु मुखहु अलाए ॥२॥
धंन गुरू तुम बिन अस काजू।
अपर करहि को दिखिय न आजू।
हिंदु धरम जग लियो बचाइ।
सभि सुर गन की कीनि सहाइ ॥३॥
जे जग बिखै न हिंदू रहिते।
सुर हित हमन कौन निरबहिते२।
बाहि आदि तिस महि जो करैण।
सो अहार हमरे मुख परै ॥४॥
काज अनिक महि हमन करंते।
सो सुर गन को त्रिपत धरंते।
यां ते हिंदू गन अरु देव।
राखन करे प्रभू गुर देव ॥५॥
इम आपस महि कहि सुर सारे।
रुचिर बिमान लाइ तिस बारे।
मणि गन खचित सु मुकता लरी।
झालर लरकति चहुं दिशि खरी ॥६॥
महां प्रकाश गगन महि होवा।
शुज़ध आतमा किनहूं जोवा३*।
१बचाअुणदे हन।
२कअुण हवन करदा।
३किसे किसे शुज़ध आतमां ने देखिआ।